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डर गया डर अब…

saritkriti
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terrerist

डर गया डर अब,
भागकर कहां जाएगा।
अपने कर्मों का फल,
गिन–गिन कर पाएगा।
भाग गया सरगना मुंह
छुपा रखा है किसी कोने में।
छोड़ गया बेसहारा,
अपने गुर्गों को रोते में।
चीथड़े उधेड़ रहे हैं,
बौखलाए हुए भुक्तभोगी।
अब कैसे बचोगे अब कहां,
जनता तुम्हें बख्‍शेगी।
कितनों के मां-बाप,
बच्चों को मारा है तुमने।
क्या सिक्ख, क्या ईसाई कितनों के,
अस्‍मत को लूटा है तुमने।
ऐ जल्लादों पाप का घड़ा,
भर गया है तुम्हारा।
अभी तक कुछ भी नहीं हुआ,
और बुरा हाल होगा तुम्हारा।
कहां गई वो किस्से,
कहानियों की बातें।
कहां गई वो धर्मों,
कर्मों की बातें।
गिड़गिड़ा रहे हो इंसानियत के,
नाम पर उक्सा रहे हो।
आज जब अपनी,
जान पर बन आई है।
सलामती की भीख,
गिड़गिड़ा कर मांग रहे हो।
बड़े ही बेदर्दी से,
एक–एक को,
मारा है तुमने,
बेकसूर बेगुनाहों को।
माफी के लायक नही है ये,
दया की भीख न देना इनको।
एक दिन तो यही होना था,
आतंकों के साम्राज्य को ढहना था।
बड़े से बड़े चट्टानों को,
चकनाचूर होते देखा है हमने।
दहशत की लंका को,
ढहते देखा है हमने।
अंत अभी बाकी है यारों,
खात्मा कर दो उस,
आतंक के सरगना का।
मुंह छुपाकर काले कपड़े में,
दुबक कर बैठा है जाने किस कोने में।

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